शिक्षा मनोविज्ञानकेका शिक्षा के क्षेत्रकेमें योगदान CONTRIBUTION OF EDUCATIONAL PSYCHOLOGYIIN THE FIELDIOF EDUCATION
शिक्षा मनोविज्ञान व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन करता है। मनोविज्ञान ने शिक्षा के क्षेत्र में अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन किये है। प्राचीन काल में मनोविज्ञान के ज्ञान के अभाव में शिक्षा के क्षेत्र में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था किन्तु वर्तमान समय में मनोविज्ञान ने इन काठमाइयों को दूर करने में सहायता प्रदान की है। शिक्षा मनोविज्ञान का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान निम्नलिखित है-
(i) बाल-केन्द्रित शिक्षा (Child-centred Education ) - आधुनिक युग में बालक को शिक्षा का केन्द्र माना गया है जबकि प्राचीन शिक्षा विषय प्रधान व अध्यापक-प्रधान थी। जॉन एडम्स के अनुसार अध्यापक को केवल लैटिन ही नहीं जान लेना है, बल्कि साथ ही विद्यार्थी को भी जानना है. जिसे वह पढ़ाता है।
(ii) पाठ्यचर्या (Curriculum)-प्राचीनकाल में पाठ्यचर्या बनाते समय बालक की आवश्यकता, रूचि तथा समस्याओं को ध्यान में नहीं रखा जाता था किन्तु आधुनिक युग में पाठ्यचर्या पूर्णतया मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित है। शिक्षाक्रमों/पाठ्यचर्याओं में बालकों के मानसिक विकास, भित्र-भित्र आयु पर उनकी आवश्यकताएँ, उनकी रुचियों तथा उनके रुझानों का पूरी तरह ध्यान रखा जाता है।
(iii) अनुशासन (Discipline )- प्राचीन काल का शिक्षक छड़ी की शक्ति में विश्वास रखता था उसका विश्वास था कि छड़ी की अनुपस्थिति में अनुशासन असम्भव है (Spare the rod and spoil the child) परन्तु वर्तमान शिक्षाशास्त्री कक्षा मे प्रजातन्त्रीय (Democratic) वातावरण पर बल देने लगे है। मनोवैज्ञानिकों का मत है कि केवल प्रेमपूर्ण व्यवहार से ही बालकों पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
(iv) सीखने की क्रिया (Process of Learning)- मनोविज्ञान ने सीखने की क्रिया में बहुत संशोधन किया है। सीखने के विभिन्न नियमों व विधियों की जानकारी शिक्षण कार्य में बहुत ही सहायक है।
(v) शिक्षण प्रणाली (Teaching Methods)- अध्ययन की प्राथमिक शैली का आधुनिक शिक्षण पद्धतियों में कोई स्थान नहीं है। शिक्षा के क्षेत्र में किण्डरगार्टन मॉण्टेसरीकएवंकप्रोजेक्ट आदि अनेक शिक्षा-सिद्धान्तों व विधियो का जन्म मनोविज्ञान के प्रयोगों द्वारा ही हुआ है। गणितकतथा इतिहास जैसे अरुचिकर विषयों को भीकनवीन पद्धतियों द्वारा रुचिकरकबनायाकजा सकता है।
(vi) स्मृति तथा अवधान (Memory and Attention) सम्बन्धी प्रयोग- मनोविज्ञान याद करने की क्रिया के सम्बन्ध स्थापित करने पर बहुत जोर देता है। अवधान तथा रुचि का घनिष्ठ सम्बन्ध है। कक्षा में बालकों का अवधान आकर्षित करने के लिये पाठ्य-विषय में रुचि उत्पन्न करना आवश्यक है।
(vii) वैयक्तिक भेद, बुद्धि तथा निर्देशन (Individual Difference. Intelligence and Guidance)- प्राचीनकाल में जहाँ योग्यतानुसार शिक्षा-पद्धति अपनाना पागलपन समझा जाता था. वही आज व्यक्ति-भेद के अनुसार शिक्षा देना उचित ही नहीं, बल्कि आवश्यक समझा जाता है। बुद्धि प्रमाणिक माप ने इस कार्य को भी सुगम बना दिया है। आज आवश्यकतानुसार शिक्षा सम्बन्धी व व्यावसायिक निर्देशन देने के लिये सुविधा उपलब्ध है।
(viii) पाठ्य सहगामी क्रियायें (Co-curricular Activities) - आत्म-प्रदर्शन का सुसंयोजित व्यक्तित्व के निर्माण में तथा अबाधित विकास में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसी आत्म-प्रदर्शन की प्रवृत्ति के महत्त्व को बढ़ाने के लिये मनोविज्ञान के अध्ययन के पाठ्य सहगामी क्रियाओं को बढ़ावा दिया है। उदाहरणार्थ-सैनिक शिक्षा, बालचर विद्या, नाटक, वाद-विवाद प्रतियोगिता, छात्र संघ आदि ऐसी ही क्रियाये हैं, जिनसेनबालक को समाजोपयोगीनकार्यों को करने कानअवसर मिलतानहै।
(ix) समस्यात्मक बालक (Problematic Children) - कक्षा में अनेक बालक बाल अपराधी (Juvenile Delinquent) पलायनशील (Truant ). चोर, जुआरी आदि हो जाते हैं। ऐसे बालकों के लिये मानसिक चिकित्सा अनिवार्य है। मनोवैज्ञानिक, बालक को कभी भी समस्या मानने को तैयार नहीं है। उनके अनुसार समस्या-पिता, समस्या-अभिभावक और समस्या स्कूल सम्भव है, परन्तु समस्या-बालक सम्भव नहीं। यही कारण है कि एक मनोवैज्ञानिक बालक के असामाजिक (Anti- social) व्यवहार के कारण जानने की चेष्टा करता है न कि बालक को समस्यात्मक बालक घोषित करके एक और हो जाता है।
(x) वातावरण का महत्त्व (Importance of Environment)-आज की शिक्षा व्यवस्था में मनोविज्ञान वंश परम्परा (Heredity) से अधिक वातावरण को महत्त्व देता है। बालक तथा शिक्षक के मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से वातावरण का अनुकूलन बना रहना अत्यन्त आवश्यक है। बालक के व्यक्तित्व का सुसंयोजित विकास अनुकूल वातावरण पर निर्भर है।
वर्तमान समय में शिक्षा मनोविज्ञान का महत्त्व
शिक्षा मनोविज्ञान को वर्तमान समय में उचित महत्त्व प्रदान किया गया है। कुछ नये अन्वेषणों के कारण अब स्थिति एकदम बदल गई है। अध्यापकों के सामने भी अब नई-नई विधियों आने लगी है. फलतः उनके शुष्क कार्यों में सजीवता आ गई है। अब सारा कार्य वैज्ञानिक होता जा रहा है। अध्यापकों के कर्त्तव्य अब पहले से बदलते जा रहे हैं। अब उसे अपने बालकों के वैयक्तिक और सामाजिक आदि वातावरण से परिचित होना है। अध्यापक को अब यह जानना है कि बालक किस कुटुम्ब से आये हैं, उनका वातावरण कैसा है, वैयक्तिक विभिन्नता के आधार पर कोई तीव्र है तो कोई मन्द तो कोई कुशाग्र बुद्धि
जब तक सांख्यिकी व मनोविज्ञान की कसौटी पर बालकों की योग्यताओं और सम्भावनाओं की परीक्षा नहीं हो जाती तब तक उसके विषय में कुछ निश्चित निर्णय देना शिक्षा के न्यायालय में अक्षम्य अपराध माना जाता है। अब लोग एक स्वर से यह मानने लगे हैं कि मानव परिवर्तनशील है। अतः बालक विषयक सारी बातें निर्णयात्मक न होकर सांकेतिक होनी चाहिए, बालक सम्बन्धी सभी बुराइयों के कारणों को समझने की अध्यापक में पूर्ण योग्यता होनी चाहिए। इन्हें दूर करने के उपायों की भी जानकारी होनी चाहिए। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अध्यापक को शरीर विद्या, समाजशास्त्र तथा मनोविज्ञान का कुछ न कुछ ज्ञान होना आवश्यक है। मनोविज्ञान की शिक्षा के बिना शिक्षा के मूल्यों व आकांक्षाओं की पूर्ति असम्भव है। शिक्षाकेमनोविज्ञान वर्तमान मेंकेअध्यापक के जीवन को ज्ञानके से सम्बन्धित कर उसकी शिक्षणकेप्रणाली को उन्नत बनाकरके उसे मूल्यों की प्राप्ति में सहायताकेपहुँचाती है।
शिक्षक के लिये बाल मनोविज्ञान की उपयोगिता (UTILITY OF CHILD-PSYCHOLOGY FOR TEACHER)
शिक्षक के लिये बाल मनोविज्ञान का ज्ञान बहुत आवश्यक है। यदि शिक्षक अपने इस ज्ञान का विद्यार्थी के जीवन में प्रयोग करे, तो बालकों में महत्त्वपूर्ण अपेक्षित परिवर्तन कर सकता है बाल मनोविज्ञान के ज्ञान से शिक्षक को बालक के विकास की प्रक्रिया एवं विकास के सिद्धान्त का ज्ञान होगा। इस ज्ञान का पूरा उपयोग वह बालकों को सही दिशा देने में कर सकता है।
बाल मनोविज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि बालक की प्रारम्भिक आयु सीखने की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। यही कारण है कि उच्च कक्षाओं की तुलना में छोटी कक्षाओं का अध्ययन, विकास की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। बाल मनोविज्ञान के ज्ञान से ही शिक्षक विद्यालय का वातावरण स्वास्थ्यप्रद बनायेगा क्योंकि शिक्षक को स्वास्थ्य के बारे में अच्छा ज्ञानकेहोगा। विद्यालय केवलकेपढ़ने का स्थान हीकेनहीं है, बल्कि वहाँ बालकोंकेका सर्वांगीण विकासकेभी किया जाता है। इसके साथकेही बालकोंकेको आत्माभिव्यक्तिके, आत्मानुभूति के पूरे अवसर देना भी विद्यालय के शिक्षकों का ही काम है। शिक्षक विद्यालय का वातावरण बालकों की शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक एवं अन्य आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर तैयार करेंगे। अध्यापक को ऐसा कोई दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिए जिससे बालक के मन में हीन ग्रन्थियाँ उत्पन्न हों। बालक के मन की ग्रन्थियों से उनके व्यक्तित्व में असमायोजन हो जाता है।
बाल मनोविज्ञान के ज्ञान से ही शिक्षक किशोरों की समायोजन की समस्या दूर कर सकेंगे। किशोरावस्था में बालक-बालिकाओं की अनेक समस्यायें होती है, लेकिन बाल मनोविज्ञान का ज्ञान उनको सही दिशा दे सकता है। यदि इस समय उनको सही दिशा नहीं दी गई, तो वे अपराधी एवं
गन्दी आदतों से ग्रस्त बालक या अपराधी बालक बन जायेंगे। 1 बाल मनोविज्ञान के ज्ञान के कारण शिक्षक विद्यालय को पूरी तरह बाल-केन्द्रित बना सकता है। इसमें बालक की रुचि योगदान, क्षमता, अभिवृत्ति आदि को ध्यान में रखकर शिक्षा की व्यवस्था करेगा। अच्छे अध्यापक के लिये बालकों का स्वभाव एवं उनके मनोविज्ञान का ज्ञान उसी तरह जरूरी है जिस तरह अच्छे स्वास्थ्य के लिये औषधि एवं यंत्रों के साथ रोगी के स्वभाव का ज्ञान जरूरी है।
विद्यालय में चलने वाली विभिन्न पाठ्य सहगामी क्रियाओं में भी वह परिवर्तन कर सकेगा। पाठ्य सहगामी क्रियायें भी बालकों के लिये उतनी ही आवश्यक है, जितनी अध्ययन की प्रक्रियायें पाठ्य सहगामी क्रियाओं के माध्यम से वह सही अनुशासन रख सकेगा। विद्यालय का वातावरण स्वस्थ बना सकेगा। ऐसे अनेक उदाहरण हमें देखने को मिलते हैं, जिनमें मनोविज्ञान के ज्ञान से अध्यापकों ने बालकों के जीवन में काफी परिवर्तन कर दिया। आज शारीरिक दण्ड या भय से बालक में सुधार नहीं किया जा सकता है। बालकों को प्रेम, सहानुभूति प्रशंसा, सही निर्देशन एवंकेसलाह देकर अच्छा बनानेकेमें मदद की जा सकती है। दिन-प्रतिदिनकेएवंकेविद्यालय में आने वाली समस्याओं के समाधान में बालकेमनोविज्ञान निश्चित रूप से उपयोगीकेहोता है।
शिक्षा मनोविज्ञान की सीमाएँ (LIMITATIONS OF EDUCATIONAL PSYCHOLOGY)
एक शिक्षक शिक्षा मनोविज्ञान का ज्ञान केवल पुस्तकों से प्राप्त करके एक व्यवहारकुशल मनोवैज्ञानिक अथवा योग्य अध्यापक नहीं बन सकता है। योग्य अध्यापक बनने के लिये उसकी रुचि, मनोवृत्ति, अभ्यास एवंरअनुभव की आवश्यकतारहोती है। शिक्षा मनोविज्ञान तोरकेवल उसे सूचना एवंरज्ञान प्रदान करेगा, उसकीरयोग्यता में वृद्धि उसके अपने अनुभवरइत्यादि पर निर्भर होगी। अतएव शिक्षारमनोविज्ञानरकी एक महत्त्वपूर्ण सीमा यह है कि शिक्षा की प्रकृति ऐसी है कि उसमें ज्ञान, सूचना व तथ्यों के संकलन के अतिरिक्त भी अन्य बातों की आवश्यकता है।
शिक्षा मनोविज्ञान की दूसरी सीमा इसके वैज्ञानिक रूप के कारण है। विज्ञान से तथ्य तो प्रकाश में आते हैं, किन्तु उसके द्वारा अन्तिम निर्णय नहीं लिये जा सकते हैं। जैसे-विज्ञान द्वारा अणु-शक्तिरके उत्पादन इत्यादि कारज्ञान तो प्राप्तरहो जाता है, किन्तुरइस शक्ति का प्रयोगरकैसे हो. इसका निर्णय विज्ञान से न मिलकर सामाजिक शास्त्रो एवं मानव कल्याण से सम्बन्धित विधियों द्वारा प्राप्त होता है। शिक्षा मनोविज्ञान से भी हमें केवल तथ्यों का पता चलता है। उनके प्रयोग के निर्णय के सम्बन्ध में कुछ अन्य बातों का पता चलना भी नितान्त आवश्यक है।
शिक्षा मनोविज्ञान हमें यह तो बता सकता है कि किस प्रकार का वातावरण किस प्रकार की शिक्षा के लिये उत्तम है। किन्तु वर्तमान स्थिति में वह वातावरण कैसे उत्पन्न किया जा सकता है। अथवा उसका निर्माण करना कितना सम्भव है, इसका निर्णय मनोविज्ञान के क्षेत्र में बाहर ही समझा जा सकता है।
हम कहरसकते हैं कि किसी समस्यारको सुलझाने में विज्ञान अत्यन्तरमहत्त्वपूर्ण है और विज्ञान द्वारारसंकलित किये गये तथ्यरअनेक दशाओं में समस्या समाधान में मूल होते हैं. फिर भी सम्पूर्ण तथ्य मिलकर भी समस्या के सम्बन्ध में निर्णय लेने की आवश्यकता को समाप्त नहीं कर सकते।
शिक्षा मनोविज्ञान की तीसरी सीमा इसकी अपनी प्रकृति के कारण है। मनोविज्ञान एक विज्ञान का रूप लिये हुये तो है, किन्तु यह अन्य विज्ञानों से इस बात में भिन्न है कि इसके तथ्यों का नियमबद्ध, क्रमबद्ध रूप में रखना, जैसा कि अन्य विज्ञानों में होता है. अब तक सम्भव नहीं हो पाया है।
भौतिक विज्ञान या रसायनशास्त्र अथवा अन्य प्रकृति विज्ञान तथ्यों के झुण्ड के झुण्ड को कुछ नियमों, सिद्धान्तों या सामान्यीकरण के रूप में रख देते हैं। एक वैज्ञानिक को इन नियमों इत्यादि को ही स्मरण रखना होता है और वह इस विज्ञान सम्बन्धी जटिल से जटिल समस्या को सुलझा लेता है, किन्तु एक मनोवैज्ञानिक को तथ्यों के झुण्डों में से अपनी समस्या सम्बन्धी तथ्यों को निकालना होगा। इन तथ्यों का प्रयोग समस्या हल में जैसे उसे प्राप्त हुये है, वैसे ही नहीं, वरन इनमें स्थान एवं समय या वातावरण के अनुसार परिवर्तन लाकर करना होगा।
एक उदाहरण से उपर्युक्त बात स्पष्ट हो जायेगी। एक इंजीनियर को एक भवन का निर्माण करना है। वह भवन निर्माण सम्बन्धी नियमों का अध्ययन कर भवन की इमारत खड़ी कर देगा। नींवरकी गहराई, चूने, सीमेण्टरकी मिलावट इत्यादिरसभी जो भवन को मजबूती प्रदान करते हैं। इसका उसेरज्ञान होगा और वह नियमानुसाररभवन बनवा देगा। किन्तुरएक अध्यापक, जिसे चरित्र-निर्माणरकराना है. किसी भी ऐसे नियमों पररअपना कार्यक्रम आधारित नहीं कर सकता, जो चरित्र-निर्माणरसम्बन्धी पूर्णरूप से निर्धारित हो। चरित्र-निर्माणरके लिये उसे वंशानुक्रम, वातावरण, आदतों इत्यादि सम्बन्धी अध्ययनों का अवलोकन करना होगा, फिर देखना होगा कि किस प्रकार चरित्र-निर्माण का कार्यक्रम प्रारम्भ किया जा सकता है।
अतः हमरकह सकते हैं कि शिक्षारमनोविज्ञान की तीन महत्त्वपूर्णरसीमाएँ हैं-
(i) शिक्षा मनोविज्ञानरका प्रयोग शिक्षण की प्रकृति के अनुसार अनुभव, रुचिर, मनोवृत्ति इत्यादि एकरशिक्षक के लिये उतनेरही आवश्यक है, जितनारकि मनोविज्ञान कारज्ञान।
(ii) शिक्षा मनोविज्ञान की इस सीमा में सीमित है कि तथ्यों की सत्यता की जाँच की जाये अथवा नये तथ्यों का पता लगाया जाये। निर्णय करने में केवल सहायक होते हैं, न कि निर्णय को अन्तिम रूप से निर्धारित करने में।
(iii) शिक्षारमनोविज्ञान, मनोविज्ञान कीरसीमा में हीरसीमित है।
0 Comments