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पाठ्यचर्या तथा शिक्षक का शिक्षणशास्त्रीय समर्थन देने में बाह्य एजेन्सियों का योगदान (Role of External Agencies in Providing Curriculum and Educator Supports to Teacher in School)

पाठ्यचर्या तथा शिक्षक का शिक्षणशास्त्रीय समर्थन देने में बाह्य एजेन्सियों का योगदान (Role of External Agencies in Providing Curriculum and Educator Supports to Teacher in School)


प्रारम्भ में विद्यालयों की स्थापना धार्मिक संस्थाओं धार्मिक संगठनों अथवा धर्माचार्यों द्वारा की गई जिनका उद्देश्य धर्म प्रचारक तैयार करना होता था। अतः ऐसे विद्यालयों के लिए पाठ्यक्रम का निर्धारण भी उनके संस्थापक ही करते थे। बाद में विद्यालयों का क्षेत्र विस्तार जैसे-जैसे होता गया. समाज के विभिन्न वर्गों के छात्र उनमें आने प्रारम्भ हुए। अतः उन सभी वर्गों की रुचि विद्यालयी कार्य-कलापों में बढ़ने लगी। धीरे-धीरे धार्मिक नेताओं एवं शिक्षकों के अतिरिक्त अन्य विचारक, सामाजिक कार्यकर्ता, समाज के विशिष्ट व्यक्ति, राजनीतिज्ञ, मनोवैज्ञानिक आदि भी शिक्षा क्षेत्र से जुड़ने लगे तथा शैक्षिक कार्यक्रमों के बारे में व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से अपने विचार अपनी प्रतिक्रियाएँ तथा अपने सुझाव प्रस्तुत करने लगे। इस प्रकार संगठित प्रयास भी किये जाने लगे जिससे अनेक दाब समूहों का भी उदय हुआ। अतः 'विद्यालयों में क्या पढ़ाया जाए इस बात में रुचि रखने वालों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती रही। किन्तु पाठ्यक्रम निर्माण में इनकी प्रत्यक्ष भागीदारी की बात उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक विचार में भी नहीं आई थी तथा यह कार्य अनुभवी शिक्षाविदों तक ही सीमित था।


बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में जब से पाठ्यक्रम निर्माण कार्य को विधिवत सम्पन्न करने के प्रयास शुरू हुए तब से यह अनुभव किया जाने लगा कि इस कार्य में सभी सम्बन्धित व्यक्तियों, विद्वानो, रुचि सम्पन्न एवं अनुभवी घटकों द्वारा समीक्षा की भी व्यवस्था होनी चाहिए। ऐसे घटकों में शिक्षक, विद्यार्थी, अभिभावक, जन-सामान्य, विषय विशेषज्ञ, समाजशास्त्री, राजनीतिज्ञ, मनोवैज्ञानिक अनुसन्धान संगठन आदि प्रमुख है।


परन्तु इन सभी घटकों का विद्यालय एवं कक्षा के वातावरण में ऐसा योगदान होना चाहिए कि पाठ्यचर्या के विकास से मदद मिल सके। सीखने की प्रक्रिया सामाजिक सम्बन्धों के ताने-बाने में लगातार चलती रहती है जब शिक्षक व विद्यार्थी औपचारिक एव अनौपचारिक रूप में अंत क्रिया करते हैं। विद्यालय/स्कूल शिक्षार्थियों के समुदाय के लिए, जिससे शिक्षक व शिक्षार्थी दोनों आते हैं, संस्थागत स्थान होते हैं। अतः विद्यालय एवं कक्षा के वातावरण को किस प्रकार व्यवस्थित किया जाए कि इस तरह की अंत क्रियाएँ सीखने-सिखाने को समर्थन एव बढ़ावा दे। स्कूल का एक ऐसे सन्दर्भ में कैसे पोषण किया जाये जिससे बच्चे स्वयं को सुरक्षित, खुश व स्वीकृत महसूस करें और जिसे अध्यापक सार्थक एवं व्यावसायिक रूप से सन्तोषजनक पाये। क्योंकि तभी पाठ्यचर्या का विकास समुचित गति से हो सकता है। यह भी सुनिश्चित है कि ढाँचे और सामग्री की न्यूनतम जरूरतें पूरी हो और स्कूल की पाठ्यचर्या के लक्ष्यों को पूरा करने में सभी बाह्य एजेन्सियों का योगदान हो, तभी पाठ्यचर्या क्रियान्वयन में भी सुधार आता है।


स्कूल निर्देशित शिक्षा का स्थान होता है लेकिन ज्ञान सृजन में तो निरन्तरता होती है अतः वह स्कूल के बाहर भी होता रहता है। अतः स्कूल समुदाय को अपने परिसर में बुलाकर बाहरी संसार को पाठ्यचर्या के प्रक्रियाओं को प्रभावित करने में एक भूमिका दे सकता है। अभिभावक व समुदाय के सदस्य स्कूल में सन्दर्भ व्यक्ति के रूप में आकर पढ़ाये जा रहे विषय से सम्बन्धित अपना ज्ञान बाँट सकते हैं। उदाहरण के लिए मशीनों के अध्याय में स्थानीय मैकेनिक को बुलाया जा सकता है जो मशीन ठीक करने के अपने अनुभवों की जानकारी कक्षा में दे सकता है। सभी स्कूलों को ऐसे तरीके खोजने की जरूरत है जिनसे अभिभावकों की भागीदारी और जुड़ाव को समर्थन मिले और यह बरकरार रहे। अक्सर निजी स्कूल अभिभावकों को महज उपभोक्ता समझते हैं और उनसे यही कहते हैं कि अगर स्कूल की कोई गतिविधि पसन्द नहीं आ रही हो तो वे अपने बच्चों को स्कूल से निकाल लें। इससे पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन को गति नहीं मिल पाती है। होना तो ये चाहिए कि बच्चों की शिक्षा व अधिगम में समुदाय के अभिभावकों की भागीदारी हो ताकि समुदाय विषयवस्तु को प्रभावित कर उससे स्थानीय, व्यावहारिक व उपयुक्त उदाहरण जोड़ें तथा ज्ञान के सृजन व सूचना की खोज व अन्य खोजबीन में छात्रों की मदद करें तथा गाँव से बच्चों के शिक्षण के अनुकूल परिवेश विकसित करें। अतः यदि स्कूल के वातावरण को पाठ्यचर्या क्रियान्वयन के अनुकूल बनाना है तो स्कूलों में अभिभावक शिक्षक संघ, स्थानीय स्तर की समितियों व पूर्व विद्यार्थियों के संघ जैसे संस्थागत ढाँचे होने चाहिए। राष्ट्रीय उत्सवों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों या खेलकूद के आयोजन में भी स्थानीय निवासियों, अभिभावकों व पूर्व विद्यार्थियों को आमन्त्रित करना चाहिए।


प्राय: देखा गया है कि शिक्षक संगठन और संस्थाएँ स्कूली शिक्षा के अन्तर्गत पाठ्यचर्या विकास में जितनी उनमें उम्मीद की जाती है इसमें कहीं ज्यादा बड़ी भूमिका निभा सकती है। इस प्रकार वे स्कूल के क्रियाकलापों में सुधार के मानक बना सकते हैं और पाठ्यचर्या को प्रभावी ढंग से पढ़ाने के लिए आवश्यक सुझाव भी दे सकते हैं। ये संस्थाएँ स्थानीय स्तर की संस्थाओं के साथ-साथ खण्ड सन्दर्भ केन्द्र (BRC) और संकुल सन्दर्भ केन्द्र (CRC) के साथ यह आंकलन भी कर सकते हैं कि कितना अकादमिक समर्थन चाहिए और उस सम्बन्ध में अपनी राय भी दे सकती है।


विभिन्न एजेन्सियों की भूमिका (ROLE OF VARIOUS AGENCIES)


राष्ट्रीय व राज्य दोनो स्तरों पर विद्यालयी शिक्षा में गुणात्मक सुधार हेतु व पाठ्यचर्या क्रियान्वयन हेतु विभिन्न एजेन्सियों का कंधे से कंधा मिलाकर चलना होगा।


विद्यालय (School)-राष्ट्रीय राज्य, जिला और स्थानीय (गाँव/नगर) स्तरों पर विद्यालयी शिक्षा में गुणात्मक सुधार हेतु जिम्मेदार संस्थाओं और संगठनों के अन्दर और उन सबके बीच आपस में मानव संसाधन विकास के लिए अच्छा सामजस्य होना चाहिए। इस नेटवर्क के माध्यम से विद्यालयी शिक्षा प्रणाली की पाठ्यचर्या को सरल व प्रभावी ढंग से क्रियान्वित किया जा सकता है। इसके लिए सभी स्तरों पर जिम्मेदारी बाँटने की आवश्यकता है, जिसके लिए राज्य, जिला व स्थानीय स्तर पर टास्क फोर्स भी गठित किये जा सकते हैं जिसमें सरकार के प्रतिनिधि और अपने कार्यों के सम्बन्ध में स्वायत्तता प्राप्त विद्यालय और समुदाय शामिल होंगे। ये टास्क फोर्स निम्नलिखित कार्य के लिए उत्तरदायी होंगे 

(i) अपने क्षेत्रों के विद्यालयों में बुनियादी सुविधाओं की पहचान और समय समय पर उनके आकलन के लिए। 

(ii) समानता और गुणवत्ता दोनों के लिए भौतिक व मानवीय संसाधनों का अधिकतम उपयोग करने और ऐसे आवश्यक संसाधनों में वृद्धि करने की दृष्टि से योजना और कार्य-नीतियाँ बनाने के लिए उदाहरणार्थ, समुदाय में उपलब्ध संसाधनों में साझेदारी जैसे स्थानीय पुस्तकालय का उपयोग, उपयोग में लाई गई पाठ्य पुस्तकों और वाचन सामग्री का संग्रह उन बच्चों को वितरित करके जो स्वयं इन्हें खरीद नहीं सकते।

(iii) क्रियान्वन प्रणाली का पर्यवेक्षण आदि की मॉनीटरिंग करने के लिए। 

(iv) समुदाय और सरकार के बीच सहसम्बन्ध बरकरार रखने के लिए।


पाठ्यचर्या क्रियान्वयन हेतु विद्यालय ही ऐसी एजेन्सियाँ है जो पाठ्यचर्या को संचालित करती हैं और छात्रों के विकास से भी सीधे सीधे जुड़ी होती है। इसलिए पहली से बारहवीं कक्षा तक के विद्यालयों को ही मूल्यांकन की योजना व युक्ति विकसित करनी होगी। इससे दत्तकार्य (असाइनमेंट) परीक्षण और परीक्षाओं की बारम्बारता भी शामिल होगी। विशिष्ट संज्ञानात्मक और सह-संज्ञानात्मक क्षेत्रों की मात्रा या संख्या भी तय करनी होगी। साथ ही जिस प्रकार के परीक्षण दोनों ही क्षेत्रों के लिए लागू किए जाएंगे। उनके अधिगम प्रतिफलों का आकलन किया जायेगा, उनका अभिलेख रखा जायेगा और परिणामों की रिपोर्ट की जायेगी। कक्षा में अध्ययन अध्यापन का स्तर ऊँचा उठाने और शिक्षकों को मूल्यांकन प्रक्रिया में सुधार करने हेतु क्रियात्मक शोध करने के लिए प्रोत्साहित करने की दृष्टि से विद्यालय उपचारात्मक सामग्री का विकास भी करेंगे। स्कूलों व कक्षाओं के स्थान का अधिकतम उपयोग शिक्षा के संसाधनों के रूप में किया जा सकेगा तथा बच्चों को उन गतिविधियों में हिस्सा लेने के लिए भी प्रोत्साहित किया जा सकता है जो स्कूलों और कक्षा की पढ़ाई को आकर्षक बतायें। विद्यालय सामाजिक स्थान होते हैं अतः यहाँ समानता का मूल्य व सभी कामों के प्रति सम्मान भी बेहद महत्वपूर्ण है। स्कूल की पाठ्यचर्या में कुछ ऐसे अनुभव भी होते हैं जिनसे बच्चे अपनी एकल व सामाजिक  अधिकारों और उनकी गरिमा के प्रति सजगता का भाव होना चाहिए। इन मूल्यों को सजगतापूर्वक स्कूल के दृष्टिकोण का हिस्सा बनाया जाना चाहिए और उन्हें स्कूली व्यवहार की नीव बनना चाहिए। इस सन्दर्भ में एक समान स्कूल या कॉमन स्कूल प्रणाली काफी लाभदायक सिद्ध हो सकती है।


राज्य शिक्षा बोडौं द्वारा मूल्यांकन सुधारों को लागू करने के पीछे उद्देश्य यह होगा कि ये बोर्ड न केवल स्वयं द्वारा ली जाने वाली परीक्षाओं की विश्वसनीयता, वैधता और प्रबन्धन में सुधार करें बल्कि विद्यालयी मूल्यांकन की गुणवत्ता में भी सामान्य सुधार करें। इसके अतिरिक्त बोर्डों की यह जिम्मेदारी भी होगी कि वे शैक्षिक उद्देश्यों की पुष्टि और शिक्षण के जटिल स्थलों की पहचान का काम परीक्षा परिणामो के विश्लेषण के माध्यम से करें।


चूँकि बोर्डों के पास जो विशेषज्ञता है वह अलग-अलग विद्यालयों को गुणवत्तापूर्ण परीक्षण (टेस्ट) सामग्री बनाने के लिए उपलब्ध नहीं हो सकती. इसलिए वे ऐसी सामग्री के नमूने बनाकर विद्यालयों को उपलब्ध करायें। बोड़ों को विद्यालयों में शिक्षकों के क्षमता संवर्धन की दृष्टि से शैक्षिक मूल्यांकन में शिक्षक प्रबोधन कार्यक्रम आयोजित करने होंगे। बोर्डो को शैक्षिक मूल्यांकन के क्षेत्र में शोध और उपलब्धि-सर्वेक्षण कराना चाहिए ताकि सेंसस जैसे आँकड़े प्राप्त हो सकें और उनके निष्कर्ष विद्यालयों को उपलब्ध करा दिये जाये ताकि विद्यालय उनके गुण-दोषों को सही ढंग से जान सकें।


राज्यस्तरीय व राष्ट्रीय स्तर की एजेन्सियाँ (STATE AND NATIONAL LEVEL AGENCIES)


पाठ्यक्रम विकास हेतु विभिन्न राज्यस्तरीय एजेन्सियाँ जैसे शिक्षा निदेशालय, राज्य शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषदे, जिला शिक्षा और प्रशिक्षण संस्थान और स्वैच्छिक संगठनों को भी विद्यालयों को उपयुक्त शिक्षण सामग्री का चयन और निर्माण करने और शैक्षिक उद्देश्यों की सम्प्राप्ति एवं उपयुक्त शिक्षण युक्तियाँ अपनाने के लिए सहयोग एवं मार्गदर्शन देने की जिम्मेदारी लेनी होगी। शिक्षा मुख्य रूप से राज्य का विषय है तथा सभी राज्यों की अपनी कुछ स्थानीय आवश्यकताएँ एवं आकांक्षाएँ होती है इसलिए राष्ट्रीय शिक्षा के समान कोर पाठ्यक्रम में भी स्थानीय (राज्य) मुद्दों को समाविष्ट करने का प्रावधान रखा गया है। प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर पाठ्यक्रम विकास प्रक्रिया में राज्य शिक्षा विभाग की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तथा राज्य शिक्षा विभाग के सहयोग के बिना पाठ्यक्रम विकास सम्भव ही नहीं हो पाता है। भारत में विद्यालय स्तर की शिक्षा के लिए पाठ्यचर्या की रूपरेखा, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) नई दिल्ली द्वारा तैयार की जाती है जिसे विभिन्न राज्यों के शैक्षिक अभिकरणों द्वारा जैसे विद्यालयी शिक्षा के राजकीय बोर्ड और राज्यों के शिक्षा विभाग (प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्तर के लिए उन्हें यथावत् या थोड़े बहुत बदलाव के साथ स्वीकार कर लेते हैं। फिर भी पाठ्यचर्या निर्माण के कार्य में जुड़ी इन संस्थाओं/अभिकरणों के लिए यह आवश्यक होगा कि वे इस प्रकार की स्थितियों और आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करें जिनसे सभी की अनुभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पाठ्यचर्याओं का विकास किया जा सके व वर्तमान पाठ्यचर्याओं की विसंगतियों को दूर किया जा सके। NCERT में इसी उद्देश्य से अलग से पाठ्यक्रम विकास विभाग की स्थापना की गई है। यह विभाग अपने दायित्वों की पूर्ति के लिए प्रयासरत भी है तथा इसके अच्छे परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं।


राज्य शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषदों को शैक्षिक क्षेत्रों के अलावा मनोवैज्ञानिक क्षेत्रों में भी योगदान देने की आवश्यकता है। उनमें मौजूद मार्गदर्शन ब्यूरो/इकाइयों को सन्दर्भ केन्द्र के रूप में बदलकर मजबूत बनाया जा सकता है ताकि ये इकाइयाँ राज्य में शिक्षक प्रशिक्षण, मनोवैज्ञानिक उपकरण परीक्षण, कैरियर साहित्य इत्यादि के क्षेत्र में योगदान दे सकें तथा जिला/ब्लॉक व विद्यालयी स्तरों पर व्यावसायिक रूप से प्रशिक्षित परामर्शदाताओं की सहायता से परामर्श सेवाओं को उपलब्ध करा सकें।


इसके साथ ही समस्त विद्यालयों व वैकल्पिक शिक्षा केन्द्रों में पाठ्यचर्या के प्रभावी सचालन की जरूरत को देखते हुए केन्द्र और राज्य दोनो ही सरकारों को न्यूनतम आवश्यक सुविधाओं का प्रावधान करना होगा जिसकी पहल हो चुकी है व इसके अन्तर्गत यह सुनिश्चित किया जा रहा है कि सभी विद्यालयों के पास अध्ययन अध्यापन हेतु आवश्यक संसाधन उपलब्ध हो, जैसे- कक्षाओं के लिए कमरो सहित शाला भवन, पेयजल, प्रसाधन सुविधाएँ, शिक्षक, शिक्षण सामग्री और सहायक शिक्षण सामग्री। इसके लिए समुदाय के सभी सम्बन्धित व्यक्तियों के सहयोग से कार्य सम्बद्ध व समयबद्ध कार्य-नीतियाँ तय की जाती हैं ताकि स्वीकृत पद संख्या की अपर्याप्तता, स्वीकृत पदों को भरने में विलम्य, शिक्षकों को अन्य सरकारी कामों में लगाकर शिक्षण अवधि के समय की हानि न्यूनतम स्कूल दिवसों का पालन न करना और कुछ आवश्यक शिक्षण सामग्री खरीदने के लिए धन का अभाव जैसी अनेक गम्भीर और शाश्वत समस्याओं का निराकरण किया जा सके। अध्यापक शिक्षा संस्थाएँ-जो संस्थाएँ देश में सेवा पूर्व शिक्षकों से शिक्षा के लिए जिम्मेदार है वे मूल्यांकन सुधारों के लिए महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है इसके लिए वे अपनी पाठ्यचर्याओं में मूल्यांकन की एककेन्द्रिक घटक बना सकती है और प्रचलित प्रणाली की अच्छी तरह समीक्षा कर सकती है। ये संस्थाएं शोधकार्य हाथ में लेने के अतिरिक्त उन शिक्षकों के लिए सेवाकालीन प्रबोधन कार्यक्रम संचालित कर सकती है जो इन संस्थाओं के आसपास के विद्यालयों में कार्यरत है।


पाठ्यचर्या ढाँचे के विस्तृत लक्ष्यों के प्रति विश्वविद्यालयों की भी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। विद्यार्थियों के विविध सामाजिक, सांस्कृतिक सन्दर्भों और भारत में कक्षा सम्बन्धी जटिलताओं को देखते हुए शिक्षा में ज्ञान के आधार को विस्तृत किया जाना चाहिए। बहु-अनुशासनात्मक व साझे उद्देश्य को प्रोत्साहित करना चाहिए। ऐसा करना पाठ्यचर्या की संरचना को व्यावहारिक रूप देने के लिए शोध आधार तैयार करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण होगा। अतः विश्वविद्यालयों, SCERT और DIET जैसी संस्थाओं को आपस में जोड़ने की भी आवश्यकता है। इससे शिक्षक शिक्षा के अकादमिक कार्यक्रम, सेवाकालीन प्रशिक्षण तथा अपने अन्दर ही शोध की क्षमता विकसित करने का अवसर मिलेगा। अतः राष्ट्रीय स्तर की एजेन्सियाँ, जैसे-राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद्, प्रस्तावित राष्ट्रीय मूल्यांकन संगठन और विद्यालयी शिक्षा मण्डलों की परिषदों को निम्नलिखित दायित्वो का निर्वाह करना होगा


● विद्यालयी शिक्षा के प्रत्येक स्तर के लिए प्रत्येक पाठ्यचर्या क्षेत्र में अपेक्षित उपलब्धि स्तर तय करना।

● बालकेन्द्रित, गतिविधि उन्मुखी और दक्षता आधारित अध्ययन अध्यापन सामग्री के लिए अवधारणात्मक सामग्री और उसके नमूने तैयार करवाना। • संज्ञानात्मक और सह-संज्ञानात्मक अधिगम प्रतिफलों के पब्लिक आंकलन के लिए विभिन्न प्रकार के परीक्षणों का निर्माण करवाना और उन्हें राज्यस्तरीय एजेन्सियों को उपलब्ध करवाना। 

● मुख्य संसाधन व्यक्तियों के लिए प्रबोधन कार्यक्रमों का संचालन करना।

● विभिन्न बोर्डो के लिए प्रश्न पत्र निर्माताओं के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करना।

● अभिलेख रखने और परिणामों की रिपोर्ट देने के लिए किसी संचार तन्त्र की कल्पना करना तथा उसके विषय में परामर्श देना।

● अधिगम प्रतिफलों के मूल्यांकन के लिए बेहतर तरीकों और साधनों की खोज हेतु शोध करवाना। 

● सेन्सस (Census) जैसे आँकड़े प्राप्त करने के लिए उपलब्धि सर्वेक्षण करना।

● सूचना का प्रसार करना।

● उच्चतर माध्यमिक स्तर के छात्रों को लाभ देने के लिए मार्गदर्शन व परामर्श की ऐसी व्यवस्था करना जो इन छात्रों की मनोवैज्ञानिक आवश्यकता, दृष्टिकोण योग्यता व प्रकृति के अनुरूप हो।


अध्यापक शिक्षा संस्थाएँ-जो संस्थाएँ देश में सेवापूर्ण शिक्षकों की शिक्षा के लिए जिम्मेदार हैं। ये मूल्यांकन सुधारों के लिए महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। इसके लिए वे अपनी पाठ्यचर्याओ में मूल्यांकन को एक केन्द्रिक घटक बना सकती है और प्रचलित प्रणाली की अच्छी तरह से समीक्षा कर सकती है। ये संस्थाएँ शोधकार्य हाथ में लेने के अतिरिक्त उन शिक्षकों के लिए सेवाकालीन प्रबोधन कार्यक्रम संचालित कर सकती है जो इन संस्थाओं के आसपास के विद्यालयों में कार्यरत है।


अन्य स्थानीय संस्थाएँ-महिला और बाल विकास विभाग, स्वास्थ्य विभाग, खेल एवं युवा मामलों का विभाग, विज्ञान एवं तकनीकी विभाग, आदिवासी मामलों का विभाग, सामाजिक न्याय एव सशक्तीकरण विभाग, संस्कृति विभाग, पर्यटन विभाग, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, पंचायती राज संस्थाएँ आदि ऐसे विभाग है जो बच्चों के विकास एवं कल्याण में रुचि रखते हैं। ये सभी विभाग बच्चों और शिक्षकों की शिक्षा को समृद्ध बनाने में सक्षम है। पाठ्यचर्या के प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने हेतु ऐसा तन्त्र आवश्यक है जो मुख्य विभागों के बीच समन्वय स्थापित कर सके।


इस प्रकार उपर्युक्त संस्थाएँ स्थानीय क्षेत्रीय/राज्य स्तरीय व राष्ट्रीय स्तर पर पाठ्यचर्या के विकास हेतु विद्यालय को एक सक्षम तन्त्र बनाने में अपना योगदान दे सकती है।


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